विराग गुप्ता
आपराधिक कानूनों में बदलाव के लिए पिछले दशकों में संसदीय समिति से लेकर विधि आयोग तक सहमति और सुझाव देते रहे हैं। इस लिहाज से IPC, CRPC और एविडेंस एक्ट में बदलाव के लिए पेश तीन विधेयक स्वागत योग्य हैं। आपराधिक कानूनों में बदलाव के तीन बड़े मकसद हैं।
पहला, अंग्रेजों के जमाने के औपनिवेशिक कानूनों से मुक्ति पाना।
दूसरा, लोगों को जल्द न्याय मिले, यह सुनिश्चित करना।
तीसरा, अदालतों को मुकदमों और जेलों को कैदियों के बोझ से मुक्त करना।
क्यों अहम हैं ये बदलाव
इन कानूनी बदलावों से देश की 140 करोड़ आबादी किसी न किसी तरीके से प्रभावित होगी। धाराओं का क्रम बदलने या फिर महज दिखावटी बदलाव करने से उलझनें और बढ़ सकती हैं, इसलिए कानूनों के साथ सिस्टम में ठोस बदलाव की जरूरत है। अगले 50 सालों तक न्यायिक व्यवस्था को नए कानूनों के दम पर दुरुस्त रखने के लिए यह जरूरी है कि इन पर आम लोगों से ही नहीं, राज्यों के साथ भी पर्याप्त विमर्श हो। लोकसभा में पेश किए जाने के बाद इन विधियकों को संसदीय समिति को भेज दिया गया है। संसद के शीत सत्र में इन्हें पारित नहीं किया गया तो लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने के बाद ये विधेयक निरस्त हो सकते हैं। लेकिन पहले यह देख लेना बेहतर होगा कि इन प्रस्तावित बदलावों में क्या खास है।
आतंकवाद को पहली बार परिभाषित किया गया है।
संगठित अपराधियों की संपत्तियों की जब्ती और कुर्की का भी प्रावधान है।
विदेश भागने वाले या फिर फरार अपराधियों की गैरमौजूदगी में भी अदालत में ट्रायल शुरू हो सकेगा।
मॉब लिचिंग यानी भीड़ की हिंसा के लिए अलग से सजा का प्रावधान है। हत्या के मामलों में सीधे जुड़े लोग और सहयोगियों के लिए अलग सजा का प्रावधान है।
डिजिटल उपकरणों जैसे कि ई-मेल, सर्वर लॉग, कम्प्यूटर, स्मार्टफोन, लैपटॉप, SMS, वेबसाइट आदि को दस्तावेज और साक्ष्य की तरह मान्यता मिलेगी। लेकिन पुलिस अधिकारी इस अधिकार की आड़ में यदि लोगों के कंप्यूटर और मोबाइल को जब्त करने लगे तो फिर जनता का उत्पीड़न भी बढ़ सकता है।
समलैंगिकता से जुडी IPC की धारा-377 को खत्म करने का प्रावधान है।
हिट एंड रन मामलों में दुर्घटना के बाद आरोपी यदि घायल व्यक्ति को अस्पताल पहुंचा देता है तो उसे कम सजा होगी। घायल व्यक्ति को छोड़कर भागने वाले आरोपी के खिलाफ ज्यादा सजा का प्रावधान है।
नफरती और धार्मिक भड़काऊ भाषणों के खिलाफ स्पष्ट कानून बनाने के साथ सजा और जुर्माने का प्रावधान है।
बच्चों और महिलाओं के खिलाफ अपराध में सख्त सजा के साथ गवाहों की सुरक्षा के लिए भी प्रावधान किए गए हैं। नाबालिग से रेप मामलों में मृत्युदंड का प्रावधान है।
सियासी दबाव से अपराधियों की रिहाई को रोकने के लिए नए कानून में प्रावधान है कि पीड़ित पक्ष को सुने बगैर 7 साल से ज्यादा कैद वाले मामलों में सरकार केस वापस नहीं ले सकेगी।
हर जिले में एक सक्षम पुलिस अधिकारी होगा जो हिरासत में लिए गए आरोपियों के परिजनों को गिरफ्तारी का प्रमाण पत्र व्यक्तिगत तौर पर और ऑनलाइन देगा।
इन कानूनों का मकसद अदालतों में दोषसिद्धि की दर 90 फीसदी करने का लक्ष्य है। तीन साल से कम सजा के छोटे मामलों जैसे मानहानि, लोकसेवक के अवैध रुपये से व्यापार में शामिल होने, आत्महत्या का प्रयास करने आदि में समरी ट्रायल के प्रावधान से 40 फीसदी मुकदमे कम करने का दावा है। लेकिन पुराने लंबित मुकदमों में नए कानून लागू नहीं होंगे। फिर मुकदमों का बोझ कैसे कम होगा? इसके लिए कुछ प्रावधान गौर करने लायक हैं।
पहली बार किए गए छोटे-मोटे अपराधों जैसे शराब पीकर हंगामा, 5 हजार से कम की चोरी जैसे मामलों को एक दिन की सजा या हजार रुपये हर्जाना या फिर सामुदायिक सेवा जैसे पेड़ लगाने, सफाई करने जैसे दंड से निपटाया जा सकेगा।
20 हजार से कम की संपत्ति के मामलों को अदालत के बाहर बगैर ट्रायल के खत्म किया जा सकेगा।
ट्रांसफर या रिटायर हुए अधिकारी को बुलाने के बजाय मौजूदा पदस्थ अधिकारी ही मुकदमों में गवाही दे सकेंगे।
अफसरों के खिलाफ मामलों में 4 महीने के भीतर यदि विभागीय अनुमति नहीं मिली तो उसे हां माना जाएगा।
पहली बार अपराधी व्यक्ति को एक तिहाई सजा काटने के बाद जमानत पर रिहाई मिल सकती है।
फांसी के मामलों में दया याचिकाओं की फाइलिंग और निपटारे के लिए भी समय सीमा का निर्धारण किया गया है।
तारीख पर तारीख के सिस्टम को खत्म करने के लिए तीन महीने के भीतर चार्जशीट फाइल करने के साथ मुकदमों की सुनवाई के बाद जल्द फैसले के लिए कानूनी प्रावधान हैं। हालांकि मुकदमों में फैसला देने के लिए समय सीमा का निर्धारण नहीं किया गया है।
कुछ सुझाव
संविधान और सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों के अनुसार बेल नियम है और जेल अपवाद। इसके लिए कानून में स्पष्ट प्रावधान होने चाहिए, जिससे लोगों के जीवन के अधिकार की रक्षा होने के साथ जेलों पर बोझ कम हो सके। पीड़ित व्यक्ति की FIR दर्ज नहीं करने वाले पुलिस अधिकारी और लोगों के खिलाफ फर्जी मामले बनाने वाले शिकायतकर्ता और उसके सहयोगियों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने का कानून होना चाहिए। गलत मुकदमे में फंसे व्यक्ति की रिहाई के बाद उसे हर्जाना और क्षतिपूर्ति मिलने का कानून होना चाहिए। इससे लोगों को राहत मिलने के साथ फर्जी मुकदमेबाजी कम होगी। कानूनों में बदलाव के साथ जुडिशल इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए और निवेश की जरूरत है। इससे लोगों को जल्द न्याय मिलने के साथ देश की जीडीपी भी बढ़ेगी।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं