हर्ष वी पंत
हर्ष वी. पंत
अमेरिका-चीन संघर्ष का एक नया मोर्चा हाल ही में तब खुला, जब FBI ने कुछ ऐसे लोगों को गिरफ्तार किया, जिन पर न्यू यॉर्क के मैनहटन के चाइनाटाउन इलाके में गुप्त तौर पर चीनी ‘पुलिस स्टेशन’ चलाने का आरोप था। पिछले महीने ही कनाडा ने भी कुछ जगहों पर जांच शुरू की थी, जहां से कथित तौर पर ऐसी ही गतिविधियां चलाई जा रही थीं। हालांकि, चीन ने ऐसे आरोपों से हमेशा इनकार किया है, लेकिन खबरें हैं कि 50 से अधिक देशों में ऐसे करीब 100 कथित पुलिस स्टेशन हैं, जो विदेश में रहने वाले चीनी राष्ट्रीयता के लोगों पर नजर रखते हैं। चीन इन्हें ऐसे सर्विस सेंटर के रूप में पेश करने की कोशिश करता है, जिनका मकसद चीनी राष्ट्रीयता के लोगों की सहायता करना है, लेकिन वास्तव में यह चीनी राज्य तंत्र की ओर से विदेशी जमीन पर अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास है। यह चीन में बढ़ते इस विश्वास का प्रतीक है कि वह बिना रोक-टोक के अपना प्रभाव बढ़ाना जारी रख सकता है।
कोविड बाद का दौर
मैनहटन में यह गिरफ्तारी ऐसे वक्त हुई, जब चीन अपनी एक सौम्य राष्ट्र की छवि बना रहा है। ऐसे राष्ट्र की, जो वैश्विक समस्याओं को हल करने और झगड़ों को निपटाने में लगा हुआ है।
बरसों से अपने संशोधनवादी अजेंडे पर दुनिया भर के देशों की लानत-मलामत झेलते पेइचिंग को इस बात का अच्छी तरह अहसास हो चुका है कि उसे अपनी सॉफ्ट छवि पेश करने की जरूरत है।
जब तमाम वैश्विक नेता कोविड बाद के दौर में चीन से संपर्क में आए तो उसके लिए संभावनाओं की एक नई खिड़की खुली। वह अब नए ढंग से अपनी मौजूदगी महसूस करा सकता था।
पिछले कुछ महीने चीन के लिए कूटनीतिक तौर पर असामान्य रूप से व्यस्त रहे। उसने कई नेताओं की मेजबानी की, यूरोप और मध्यपूर्व के क्षेत्रों तक पहुंचा। यही नहीं, यूक्रेन युद्ध और सऊदी अरब-ईरान विवाद में उसने खुद को शांति स्थापित करने वाले देश के रूप में पेश किया। ‘वुल्फ वॉरियर’ डिप्लोमेसी की जगह उसका ज्यादा संतुलित रुख नजर आने लगा। चीन ने दुनिया भर में लोगों को प्रभाव में लेने और दोस्त बनाने की कोशिश शुरू की।
वैश्विक पटल पर खुद की नई छवि गढ़ने की इन कोशिशों के पीछे कहीं न कहीं चीन की यह इच्छा काम कर रही थी कि उसे अमेरिका के एक विश्वसनीय विकल्प के रूप में देखा जाए। सोच यह है कि अगर अमेरिका आंतरिक कारणों से मजबूर दिख रहा है और वैश्विक मामलों में उसकी उदासीनता से जो शून्य पैदा हो रहा है, उसे भरने में चीन को देर नहीं करनी चाहिए। जहां कोविड के दौरान चीन अपनी घरेलू परेशानियों में उलझा नजर आ रहा था, वहीं कोविड के बाद के दौर में अपेक्षा यह होगी कि चीन वैश्विक पटल पर समस्याओं को दूर करने की कोशिश करता दिखे।
यह ऐसा दौर है, जब विश्व व्यवस्था में भी नेतृत्व के स्तर पर एक शून्य दिख रहा है। बड़ी ताकतों के रिश्तों में दरार आ है। वहीं, दुनिया भर में भू-राजनीतिक बदलाव तेज हुए हैं। दूसरी ओर, भू-आर्थिक संकट भी दिख रहे हैं। ऐसे में चीन खुद को एक भरोसेमंद वैश्विक मध्यस्थ के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है। उसे पता है कि अगर उसने तेजी नहीं दिखाई तो भारत जैसे देश और मोदी जैसे नेता इस भूमिका में आगे निकल सकते हैं। कोविड के दौरान विकासशील देशों की मदद में तत्पर रहकर और ‘ग्लोबल साउथ’ को जी-20 अध्यक्षता के केंद्र में बनाए रखकर भारत ने असल में चीन की विकासशील देशों के नेता की स्वनिर्मित छवि को चुनौती दे दी है।
वैसे शी चिनफिंग और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को भी इस सचाई का अहसास हो रहा है कि पिछले करीब एक दशक में अपनाई गई बेहद आक्रामक विदेश नीति ने उसे काफी हद तक अलग-थलग कर दिया है। अब जब चीन कोविड से उपजी आर्थिक सुस्ती से उबर रहा है तो उसे पश्चिम की मदद चाहिए। पश्चिमी मदद के बगैर चीनी अर्थव्यवस्था रफ्तार नहीं पकड़ सकती। शायद इसीलिए जीरो कोविड पॉलिसी के खत्म होने के बाद चीन ने सबसे पहले यूरोप का रुख किया। फरवरी में वांग यी यूरोप गए। मकसद चीन-यूरोप रिश्तों की तस्दीक करना था और यूरोप को अमेरिका से दूर करने की संभावनाएं खंगालना भी। यूक्रेन पर किसी स्पष्ट योजना के बगैर उस दिशा में बात नहीं बढ़ सकती थी। इसलिए चीन ने दो पोजिशन पेपर जारी किए।
एक शांति प्रस्ताव यूक्रेन युद्ध के लिए और दूसरा पूरी दुनिया के लिए, जिसमें संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने और इकतरफा पाबंदियां लगाने से बचने की बात केंद्र में थी।
शी चिनफिंग के मॉस्को दौरे में रूस-चीन की नजदीकी पर जिस तरह से जोर दिया गया, उसे देखते हुए यह स्पष्ट है कि यूक्रेन शांति योजना का यूक्रेन से शायद ही कोई मतलब था।
इसका मकसद यह रेखांकित करना था कि जहां अमेरिका युद्ध को अधिक से अधिक लंबा खींचने में लगा है, वहीं चीन एक ऐसा देश है जो इस संकट को सुलझाने का प्रयास कर रहा है।
यह संदेश दुनिया के उस बड़े हिस्से के लिए था, जो यूरोप में लड़े जा रहे इस युद्ध की कीमत चुकाते-चुकाते थक चुका है।
झुकने का इरादा नहीं
इन तमाम प्रयासों के बावजूद चाहे ताइवान में सैन्य धमकियों की बात हो या ईस्ट और साउथ चाइना सी के विवादों में आक्रामक रवैया जारी रखने की, यह स्पष्ट है कि अपनी मुख्य मांगों को लेकर झुकने का चीन का कोई इरादा नहीं है। भारत-चीन सीमा का मसला भी बना ही रहने वाला है ताकि भारत पर दबाव कायम रहे। कुल मिलाकर, चीन की कूटनीतिक शब्दावली में इन दिनों भले कुछ बदलाव दिख रहा हो, उसके कार्य उसी पुरानी छवि को मजबूती दे रहे हैं जिसके मुताबिक यह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में किसी भी कीमत पर अपनी जगह बनाना चाहता है। ऐसे में नई छवि बनाने की उसकी ताजा कवायद को बाकी दुनिया कितनी अहमियत देती है, यह देखने वाली बात होगी।
(लेखक लंदन के किंग्स कॉलेज में प्रफेसर हैं)
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं