नदीम
कर्नाटक के नतीजों ने विपक्ष को नई ऊर्जा दी है। खासतौर से कांग्रेस को। लेकिन इन नतीजों में 2024 की झलक देखने की कोशिश विपक्ष की एक बड़ी भूल होगी। दरअसल, इस सचाई से मुंह नहीं मोड़ा जाना चाहिए कि हर चुनाव के अपने मुद्दे होते हैं। निकाय चुनाव, विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में दिखा वोटिंग पैटर्न देश का मूड नहीं कहा जा सकता। भारतीय मतदाता इतना जागरूक हो चुका है कि मतदान के समय उसे खयाल रहता है कि वह किसके लिए वोट कर रहा है। 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के नतीजे बीजेपी के खिलाफ गए थे, लेकिन लोकसभा चुनाव में इन सभी राज्यों में बीजेपी को बढ़त मिली। जिन राज्यों में बीजेपी के खिलाफ सशक्त विपक्ष मौजूद है, वह स्थानीय चेहरों की वजह से है। कर्नाटक में भी कांग्रेस की जीत की बड़ी वजह यह है कि वहां उसका स्थानीय नेतृत्व मजबूत है। राष्ट्रीय स्तर पर इसी का संकट दिखता है।
साख का सवाल
2024 के मद्देनजर नरेंद्र मोदी के खिलाफ विकल्प के तौर पर जितने भी चेहरे मैदान में हैं, उनमें से ज्यादातर कभी न कभी एनडीए का हिस्सा रहे हैं। इसी से उपजा भरोसे का संकट केवल अलग-अलग राजनीतिक दलों के ही बीच नहीं है, बल्कि प्रतिबद्ध ‘गैर बीजेपी’ मतदाता के बीच भी यह सवाल तैरता हुआ दिख ही जाता है कि इस बात की क्या गारंटी है कि चुनावी नतीजे आने के बाद सत्ता के किसी समीकरण को अनुकूल बनाने के लिए वे बीजेपी के पाले में नहीं होंगे?
आज भी लोकप्रियता में सबसे आगे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
इन दिनों मोदी के खिलाफ विपक्ष के जो सबसे गंभीर चेहरे के रूप में देखे जाते हैं वह हैं नीतीश कुमार। लेकिन नीतीश कुमार ने बिहार की राजनीति में लंबा वक्त लालू के विरोध में बीजेपी के साथ गुजारा है। बिहार की 16वीं विधानसभा में तो और भी ज्यादा कमाल हुआ था। नीतीश आरजेडी के साथ गठबंधन कर बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़े। मुख्यमंत्री हुए आरजेडी गठबंधन के लेकिन नौ महीने के अंदर ही वह बीजेपी का समर्थन हासिल कर बीजेपी गठबंधन के मुख्यमंत्री बन गए।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का भी एनडीए में आना-जाना लगा रहा है। बीजेपी उनके लिए ‘अछूत’ नहीं रही है। 1999 में वह अटल बिहारी सरकार में केंद्रीय मंत्री रही हैं। वर्ष 2000 में बंगाल में विधानसभा चुनाव होने थे तो ममता ने छोड़ दिया लेकिन चुनाव में हार के बाद 2003 में उन्होंने फिर से एनडीए में वापसी कर ली और केंद्र सरकार में फिर से मंत्री बन गई थीं। 2004 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में ममता और बीजेपी का गठबंधन था।
ममता बनर्जी- अटल सरकार में मंत्री रही हैं
बीएसपी चीफ मायावती यूपी में चार बार मुख्यमंत्री हुई हैं, जिनमें से तीन बार उन्होंने बीजेपी के समर्थन और गठबंधन में सरकार चलाई है। उन्हें पहली बार 1995 में जब मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला तो वह बीजेपी की बदौलत ही मिला। 1997 और 2002 के विधानसभा चुनाव उन्होंने बीजेपी के खिलाफ लड़े लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद बीजेपी के साथ गठबंधन कर सरकार बना ली। यूपी की मुख्यमंत्री रहते हुए 2002 के गुजरात विधानसभा चुनाव में उन्होंने मोदी के लिए वोट मांगे।
केंद्रीय राजनीति में अपने को ‘एंटी मोदी’ चेहरे के रूप में स्थापित करने की कोशिश में जुटे चंद्रशेखर राव के भी बीजेपी से मधुर रिश्ते रहे हैं। नोटबंदी और जीएसटी बिल पर उनकी पार्टी ने लोकसभा में मोदी सरकार का समर्थन किया था। तीन तलाक क़ानून पर उनके सांसदों ने वोटिंग से ग़ैर हाज़िर होकर मोदी सरकार की मदद की। पिछले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में भी उन्होंने बीजेपी का समर्थन किया था। 370 को हटाने पर भी टीआरएस बीजेपी के साथ थी।
जम्मू-कश्मीर से देखा जाए तो वहां की दोनों प्रमुख पार्टियों के मुखिया- फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती इन दिनों विपक्ष के खेमे में हैं लेकिन ये दोनों नेता अलग-अलग मौकों पर बीजेपी के साथ रह चुके हैं। फारुख अब्दुल्ला एनडीए में रहते हुए केंद्र सरकार में मंत्री रहे और महबूबा मुफ्ती ने राज्य में बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार चलाई।
चंद्रबाबू नायडू से लेकर उद्धव ठाकरे तक न केवल एनडीए का हिस्सा रह चुके हैं, बल्कि बीजेपी के साथ एक वक्त बहुत मीठे रिश्तों के लिए जाने जाते रहे हैं। यहां तक कि शरद पवार को लेकर भी विपक्ष के अंदर बहुत विश्वसनीयता नहीं है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह किसके साथ हैं, यह पता ही नहीं चलता।
बीजेपी के पुराने सहयोगी रहे हैं नीतीश कुमार
विपक्ष का संकट
कांग्रेस पार्टी गैर कांग्रेस नेताओं की ‘साख’ की इस कमी के कारण ही इनमें से किसी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताने से बचती आई है। लेकिन दिक्कत यह है कि खुद उसके पास भी ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जिसे मोदी के खिलाफ पेश करे। अघोषित तौर पर वह राहुल गांधी को आगे करती रही है लेकिन राहुल गांधी इस फ्रेम में कभी फिट नहीं हो सके और अब तो दो साल की सजा मिलने के बाद न केवल लोकसभा से उनकी सदस्यता रद्द हो चुकी है बल्कि अगले छह वर्ष तक चुनाव लड़ना भी मुश्किल हो सकता है। ऐसे में 2024 के लिए बीजेपी और खासतौर पर नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई चेहरा पेश कर पाना कठिन चुनौती है। लेकिन उससे भी बड़ी चुनौती प्रतिबद्ध ‘गैर बीजेपी’ मतदाताओं को यह भरोसा दिलाने की है कि जिस चेहरे के सहारे वे मोदी को चुनौती देने की सोच रहे हैं, वह चुनाव के बाद मोदी के साथ ही नहीं दिखने लगेगा।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं