Why One Nation One Election Is Bad For India

अनिल सिन्हा

केंद्र सरकार ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। जाहिर है, इससे राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गई है। विपक्ष इसे प्रधानमंत्री मोदी की सत्ता में बने रहने की राजनीतिक कोशिशों के रूप में देख रहा है। यह भी पूछा जा रहा है कि प्रधानमंत्री लोकसभा चुनावों के नजदीक आने पर ही ऐसा क्यों कर रहे हैं। यह राय उन्होंने 2018 में भी व्यक्त की थी, उसके बाद भी इसे दोहराया था, लेकिन तब इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया था। सवाल उठता है कि क्या इस बदलाव के लिए यह सही समय है?
अमल में मुश्किलें

आशंकाओं को किनारे रख दिया जाए तो भी ‘एक देश, एक चुनाव’ के सिद्धांत पर अमल के लिए इस साल के आखिर में हो रहे कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव टालने पड़ेंगे और उन विधानसभाओं के कार्यकाल बढ़ाने होंगे। या 2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव निश्चित समय से पहले कराने होंगे।
इससे भी बात पूरी तरह से नहीं बनेगी। विधानसभाओं के कार्यकाल अलग-अलग हैं और इनके साथ लोकसभा चुनाव कराने के लिए राज्यों की सरकारें बर्खास्त करनी होंगी या उनसे त्यागपत्र दिलाने होंगे और विधानसभाओं को भंग करना होगा।
बीजेपी शासित राज्यों में यह आसानी से हो सकता है, लेकिन विपक्ष-शासित राज्यों में ऐसा करने के लिए धारा 356 का उपयोग करना होगा और राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ेगा। जाहिर है, यह पूरी कसरत केंद्र सरकार के लिए आसान नहीं साबित होने वाली।

सत्ता पक्ष ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के पक्ष में चुनावी खर्च को छोड़कर कोई दूसरा बड़ा तर्क नहीं दिया है। इस चुनावी खर्च में मानव संसाधनों का वह सारा खर्च शामिल है, जो प्रशासनिक तंत्र के जरिए चुनावों में लगाए जाते हैं। एक और तर्क यह है कि आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण विकास कार्य रुक जाते हैं। लेकिन यह अर्धसत्य पर आधारित है। आचार संहिता में सिर्फ नीतिगत फैसले लेने की मनाही है। चालू परियोजनाओं और कल्याण कार्यक्रमों को लागू करने को लेकर कोई बंधन नहीं है।

चुनाव खर्च और प्रशासनिक तंत्र के इस्तेमाल का सवाल उठाते वक्त राजनेता भूल जाते हैं कि बेहताशा खर्च के लिए चुनाव का बार-बार होना होना उतना जिम्मेदार नहीं है, जितना राजनीति का लगातार भ्रष्ट और हिंसक होते जाना है।
चुनाव में अधिक पुलिस बल या बड़े प्रशासनिक तंत्र की जरूरत इसलिए पड़ती है कि राजनीतिक दल सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं।
राजनीति में अपराधियों और कालाधन रखने वालों की हिस्सेदारी बढ़ने के कारण चुनावों पर सरकारी खर्च उसी अनुपात में बढ़ा है।
जहां तक गैर-सरकारी खर्च का सवाल है तो वोट के लिए शराब पिलाने, कपड़ा और पैसा बांटने की संस्कृति चुनावी राजनीति का अभिन्न हिस्सा हो चुकी है। इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए मिलने वाले चंदा इतना अपारदर्शी है कि यह पता ही नहीं चलता, किसका धन कौन सी पार्टी इस्तेमाल कर रही है।

क्या जरूरी हो गया है एक देश-एक चुनाव
सबसे बड़ा मसला है पांच साल के लिए प्रतिनिधि चुनने से भारत की संसदीय प्रणाली और इसके संघीय ढांचे को होने वाले नुकसान का। भारत की संविधानसभा ने बहुत चर्चा के बाद राष्ट्रपति प्रणाली को खारिज कर दिया था जिसके तहत पूरे कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति और विधायिका के सदस्यों को चुना जाता है।

संसदीय प्रणाली में सदन में किसी को भी बहुमत नहीं मिलने पर फिर से चुनाव कराना आवश्यक होता है।
इस प्रणाली का मूल तत्व है कि जब सरकार बहुमत का विश्वास खो दे तो जनता के पास जाया जाए।
देश की विविधता और अलग-अलग राज्यों और समुदायों को सत्ता में भागीदार बनाने के लिहाज से इस प्रणाली को संविधानसभा ने सही माना।
इस प्रणाली के कारण विविधताओं वाले इस देश में बहुसंख्यकवाद को कमजोर किया गया है।
पांच साल के बीच चुनाव नहीं कराने की पाबंदी का मतलब है कि बहुमत खो देने वाली सरकार बनी रहे और केंद्र सरकार धारा 356 के तहत राज्यों का शासन चलाए।
यह संघीय ढांचे के लिए कितना नुकासानदेह है, इसे सरकारिया कमिशन की सिफारिशों में देखा जा सकता है। दल-बदल के जरिए जिस तरह सरकारें बदली जाती हैं उससे जनता के पास इन सरकारों को हर हाल में बर्दाश्त करने के अलावा कोई उपाय ही नहीं रहेगा।
लोकसभा को पूरे पांच साल तक बनाए रखने का तर्क इस लिहाज से भी आपत्तिजनक है कि किसी भी पार्टी को बहुमत न होने की स्थिति में राष्ट्रपति शासन का प्रावधान करना पड़ेगा, जो संविधान में नहीं है।

हम लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाकर सत्ता में बने रहने की इंदिरा गांधी की कोशिशों को आपातकाल के रूप में देख चुके है। हमें लोकतंत्र के दो बड़े योद्धाओं- डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को याद रखना चाहिए। डॉ. लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंजतार नहीं करतीं और जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि जनप्रतिनिधि के जनता का विश्वास खो देने पर उसे वापस बुलाने का अधिकार हो। वह प्रतिनिधि वापसी का अधिकार संविधान में दर्ज कराना चाहते थे।
संघीय ढांचे का सवाल
वैसे भी, इस बदलाव के लिए संविधान में कई संशोधन करने पड़ेंगे। इसके लिए संसद के कार्यकाल और उसे भंग करने के प्रावधानों वाली धाराएं 83 तथा 85 और राज्य विधानसभाओं से संबंधित धारा 172 तथा 174 में संशोधन करने होंगे। राज्य विधानसभाओं से संबंधित धाराओं के संशोधन के लिए आधे से अधिक राज्यों की सहमति भी लेनी होगी। इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है कि इन जटिल प्रक्रियाओं के लिए सरकार की तैयारी कितनी है। सवाल यह भी है कि क्या संविधान के मूल ढांचे को बदला जा सकता है? ध्यान रहे, संघीय ढांचा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं