उमेश चतुर्वेदी
केंद्र सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुआई में ‘एक देश, एक चुनाव’ की संभावना तलाशने के लिए समिति बना दी है। इसके बाद एक बार फिर यह मुद्दा चर्चा में है। इसके पक्ष में मोदी सरकार के अपने तर्क हैं तो विरोधियों के अपने। ऐसे में आसार यही हैं कि जब तक कोविंद समिति अपनी रिपोर्ट नहीं दे देती, तब तक यह मुद्दा गरम रहेगा।
1968 के बाद बदले हालात
साल 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ होते रहे। हालात इसके बाद बदले।
1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं बर्खास्त कर दी गईं। उसके बाद चुनावी कैलेंडर गड़बड़ा गया।
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में विभाजन के बाद अपनी लोकप्रियता को देखते हुए 1972 की बजाय एक साल पहले ही आम चुनाव करवा लिए।
फिर तो ऐसी स्थिति बन गई कि हर साल चुनाव होने लगे, लेकिन लगातार चुनाव हों तो उसके नुकसान भी होते हैं।
जैसे ही इलेक्शन कमिशन चुनावों की घोषणा करता है, उसके साथ ही आचार संहिता लागू हो जाती है। तब जरूरी कामकाज के अलावा पूरा विकास कार्य रुक जाता है।
सरकार का तर्क है कि अगर ‘एक देश, एक चुनाव’ योजना लागू की जाती है तो चुनाव-दर-चुनाव आचार संहिताओं के लंबे सिलसिले से बचा जा सकेगा और इस बहाने विकास कार्य पर लगने वाली रोक से भी बचा जा सकेगा।
दूसरा नुकसान चुनावों पर होने वाले भारी-भरकम खर्च का है। सरकार की दलील है कि एक साथ चुनाव करवा कर बार-बार के इन खर्चों से बचा जा सकेगा।
इन खर्चों का हिसाब है भी हैरत में डालने वाला। साल 2019 में हुए आम चुनावों के बारे में सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने अनुमान लगाया था कि उसमें करीब साठ हजार करोड़ रुपये खर्च हुए। यह राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों और सरकारों द्वारा किया गया कुल खर्च है। हर मतदाता पर पिछले आम चुनाव में औसतन सात सौ रुपये खर्च हुए।
अगर चुनाव आयोग के खर्च की बात करें तो उसने करीब 6500 करोड़ खर्च किए, जो पिछले यानी 2014 के आम चुनाव में हुए 3870 करोड़ के दोगुने से कुछ ही कम है।
साल 2014 में हुए आम चुनाव में कुल खर्च 30 हजार करोड़ रहा।
साल 2009 में हुए आम चुनाव में करीब 20 हजार करोड़ खर्च हुआ, जबकि साल 2004 के आम चुनाव में यह खर्च करीब 14 हजार करोड़ रहा।
पिछली सदी के आखिरी चुनाव यानी साल 1999 में हुए आम चुनाव में दस हजार करोड़ खर्च हुए थे, जबकि 1998 के आम चुनाव में नौ हजार करोड़।
ये खर्च सिर्फ लोकसभा चुनावों के हैं। हर साल होने वाले विधानसभा चुनावों के खर्च अलग हैं। अगर विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ होंगे तो जाहिर है तकरीबन एक ही खर्च में काम हो जाएगा। इससे जहां धन की बचत होगी, वहीं आचार संहिता लगने से विकास कार्यों के ठप होने की भी नौबत नहीं आएगी।
‘एक देश, एक चुनाव’ का यह विचार कोई पहली बार सामने नहीं आया है। साल 1999 में विधि आयोग ने भी पूरे देश के सभी आम चुनाव एक साथ कराए जाने का सुझाव दिया था। इसके लिए आयोग ने अपनी तरफ से कुछ कानूनी संशोधन के भी सुझाव दिए थे
‘एक देश, एक चुनाव’ के विरोध में तर्क दिया जाता है कि अपने यहां संसदीय लोकतंत्र है। इस बात की गारंटी नहीं है कि हर बार किसी दल विशेष को बहुमत ही मिले। गठबंधन सरकारें भी होंगी और उनके अंतर्विरोध के चलते सरकारें गिरेंगी भी। जब सरकारें गिर जाएंगी तो चुनाव तो कराने ही होंगे। लेकिन ‘एक देश एक चुनाव’ के समर्थकों के पास इन सवालों के जवाब हैं।
हर विधानसभा और लोकसभा का कार्यकाल निर्धारित होना चाहिए।
अगर कोई सरकार गिर जाती है तो उसके बाद नए गठबंधन को सरकार बनाने का मौका दिया जाना चाहिए।
गठबंधन सफल नहीं रहता है तो उस विधानसभा या लोकसभा की बची अवधि के लिए सर्वदलीय सरकार बनाई जानी चाहिए।
नई सरकार कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के साथ बननी चाहिए।
इन पर निगरानी रखने के लिए एक स्वतंत्र और स्वायत्त निकाय होना चाहिए।
किसी विधायक या सांसद के असामयिक निधन की स्थिति में चुनावों में दूसरे स्थान पर रहे उम्मीदवार को अपने-आप सांसद या विधायक घोषित किया जाना चाहिए। ऐसी व्यवस्था अमेरिकी राष्ट्रपति और गवर्नरों के लिए लागू है। वहां चुनाव निर्धारित अवधि के बाद ही होते हैं। राष्ट्रपति के इस्तीफे या मृत्यु की स्थिति में उपराष्ट्रपति बाकी बचे कार्यकाल के लिए अपने आप राष्ट्रपति बन जाता है। इससे अमेरिका चुनावी खर्च से बचता है, नीतिगत फैसले लेने की प्रक्रिया जारी रहती है।
साल 2022 को संविधान दिवस के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘एक देश, एक चुनाव’ को वक्त की जरूरत बताकर इस दिशा में देश को सोचने का एक मौका दे दिया। हालांकि ‘एक देश, एक चुनाव’ का यह विचार कोई पहली बार सामने नहीं आया है। साल 1999 में विधि आयोग ने भी पूरे देश के सभी आम चुनाव एक साथ कराए जाने का सुझाव दिया था। इसके लिए आयोग ने अपनी तरफ से कुछ कानूनी संशोधन के भी सुझाव दिए थे, जिनमें उस लोक प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का भी प्रस्ताव था, जिसके तहत लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और विधान परिषद का निर्वाचन चुनाव आयोग कराता है।
आम सहमति मुश्किल
वैसे ‘एक देश और एक चुनाव’ पर आम सहमति बनाना आसान नहीं है, लेकिन कोविंद समिति के बहाने देश में इस मुद्दे पर चर्चा जरूर होगी और जागरूकता बढ़ेगी। इसके बाद लोक मानस के सहमति के किसी बिंदु तक पहुंचने की उम्मीद की जा सकती है।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं