हाल के दिनों में सोशल मीडिया कंपनियों का सरकार से टकराव बढ़ा है। खासकर मोदी सरकार के दूसरे टर्म में कई मसलों पर इन कंपनियों के सरकार से मतभेद हुए। कुछ मामले तो अदालत तक पहुंच गए। वॉट्सऐप से जुड़ा मसला कोर्ट में है। उधर, ट्विटर और सरकार के बीच विवाद भी दिनो-दिन बढ़ता ही जा रहा है। सरकार ने मानकों का पालन नहीं करने के मामले में ट्विटर को मिला कानूनी कवच हटा लिया। आखिर क्या वजह है कि सोशल मीडिया और सरकार के बीच तकरार इस तरह का रूप लेती जा रही है, और क्यों इसे हल करने की कोशिशें सफल नहीं हो रहीं?
हाल के दिनों में भारत ही नहीं, पूरे विश्व में सोशल मीडिया और सरकारों के बीच तनातनी रही है। पूरे घटनाक्रम का दिलचस्प पहलू यह है कि सत्ता में बैठे जिन लोगों से सोशल मीडिया का टकराव हुआ, उनमें अधिकतर ऐसे हैं जिनके लिए कभी सोशल मीडिया सत्ता की सीढ़ी बना था। भारत में भी 2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने प्रचंड जीत हासिल की थी, तो उन्होंने इसके लिए सोशल मीडिया को भी मददगार बताया था।
नया नहीं है यह टकरावभारत सहित कई देशों में सोशल मीडिया के साथ टकराव के पीछे मुख्य कारण यह है कि हर सरकार अपने-अपने स्तर पर नियम बना रही है। भारत ने भी हाल ही में सोशल मीडिया के लिए नए कानून बनाए हैं। वैसे यह टकराव अचानक शुरू नहीं हुआ। यूपीए-2 के समय ही सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने पर पहला टकराव हुआ आईटी एक्ट की धारा 66ए को लेकर। हालांकि, तब सोशल मीडिया कंपनियों से अधिक इसका उपयोग करने वाले यूजर्स पर अंकुश लगा था। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को खत्म कर दिया। फिर जब मोदी सरकार सत्ता में आई, तो सबसे पहले 2016-17 में टकराव हुआ। तब केंद्र सरकार ने नए कानून बनाने की भी पहल की थी, जिसमें कहा गया कि सभी सोशल मीडिया कंपनियों को भारतीय यूजर्स का डेटा भारत में ही रखना होगा और उन्हें यहां अलग से लाइसेंस भी लेना होगा। सरकार का तर्क है कि ये कंपनियां देश के अंदर कानूनी प्रक्रिया से इसलिए बच जाती हैं, क्योंकि इन्होंने लाइसेंस देश के अंदर से नहीं लिया है। लेकिन इसके लिए भी सोशल मीडिया कंपनियां आज तक तैयार नहीं हुई हैं। इसके बाद सरकार का टकराव फेसबुक से हुआ। इस सोशल मीडिया कंपनी पर राजनीतिक दलों के साथ काम करने वाली कैंब्रिज एनालिटिका के साथ मिलकर चुनावी लाभ के लिए डेटा लीक करने का आरोप लगा था। यह भी आरोप लगा था कि फेसबुक अपने प्लैटफॉर्म का इस्तेमाल करके चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश करता है। इस खुलासे के बाद मोदी सरकार ने फेसबुक को चेतावनी दी थी कि अगर उसने डेटा चोरी के जरिए चुनावों को प्रभावित करने का कोई प्रयास किया, तो उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। सरकार ने फेसबुक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मार्क जकरबर्ग को भी नोटिस भेजा था। लेकिन बाद में फेसबुक के भरोसा दिलाने के बाद विवाद शांत हो गया। 2019 में आम चुनाव से पहले ट्विटर से भी टकराव हुआ। तब चुनाव से ठीक पहले शिकायत मिलने के बाद संसदीय समिति ने सोशल मीडिया कंपनी के शीर्ष अधिकारियों को नोटिस भेजा था। आरोप था कि दक्षिणपंथी विचारों को सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर जान-बूझकर टारगेट किया जा रहा है।
इसके बाद अब सामने आया है नया आईटी कानून, जिसे लेकर अभी सारा विवाद है। केंद्र सरकार और वट्सऐप में इन दिनों तनातनी चल रही है। सरकार इस सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर आने वाले हेट और फेक कंटेंट पर अंकुश लगाने के लिए आईटी एक्ट में बदलाव कर संदेशों को ट्रैक करने का अधिकार चाहती है। लेकिन वट्सऐप ने कहा है कि चूंकि वह यूजर्स की निजता से समझौता नहीं कर सकती, इसलिए वह इसके लिए तैयार नहीं है। गूगल ने भी सरकार की बात मानी, लेकिन डेटा साझा करने के मुद्दे पर अभी गोलमोल उत्तर ही दिया है। उधर, सरकार ने आरोप लगाया कि ट्विटर कानून ही मानने को तैयार नहीं है। कंपनियों का अपना तर्क है कि विश्व के अलग-अलग देशों में सरकारें नियमों का हवाला देकर फ्री स्पीच पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रही है। विश्व के कई देशों में इसकी मिसाल भी दिखी। इसी चिंता के बीच अभी जी-7 देशों के सम्मेलन में ताकतवर देशों ने लिखित प्रस्ताव पास किया कि वे फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन (ऑनलाइन और ऑफलाइन) का पूरा सम्मान करते हैं। इससे डेमोक्रेसी को मजबूती मिलती है, लोगों को भयमुक्त और दबाव मुक्त वातावरण मिलता है। हाल के सालों में अमेरिका और यूरोपीय देशों में भी इसी तरह की तकरार देखने को मिली। अमेरिका में तो यह विवाद वहां हुए चुनाव के दौरान इतना बढ़ गया था कि तत्कालीन प्रेसिडेंट ट्रंप का सोशल मीडिया अकाउंट ही बंद कर दिया गया।
अशांति फैलाने वालों का क्या करेंसोशल मीडिया बनाम सरकार का विवाद हर बार फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बहस में उलझकर रह गया, लेकिन इस विवाद को उसके इतर भी जाकर देखने की जरूरत है। जब सोशल मीडिया अधिकतर लोगों की जिंदगी का एक अपरिहार्य हिस्सा बन गया तो इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलू भी सामने आए हैं। सरकारों का मानना है कि यह बिगड़ैल तत्वों का अड्डा बन चुका है, जो भ्रामक बातें या अफवाहें फैलाकर समाज में अशांति पैदा करना चाहते हैं।
इसके अलावा अपराध की भी कई वारदातें हुईं। कुछ राज्यों में बच्चा पकड़ने के गिरोह के बारे में वायरल हुई अफवाह के लिए सोशल मीडिया को ही जिम्मेदार माना गया। बच्चा पकड़ने वाली खबर फैलने के बाद भीड़ ने कुछ निर्दोष लोगों की हत्या तक इसी अफवाह के चलते कर दी। बच्चों के पॉर्न कंटेंट भी सोशल मीडिया के माध्यम से ही फैलाए गए, जिसे सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद रोका गया। इसी तरह कश्मीर से लेकर अलग-अलग जगहों पर अशांति फैलाने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया। सरकार का तर्क है कि ऐसी चीजों पर लगाम लगाने और समय रहते एक्शन लेने के लिए सोशल मीडिया को सरकार के कुछ कायदे-कानून मानने होंगे, जिसका फ्री-स्पीच से कोई मतलब नहीं है। लेकिन कंपनियों का तर्क है कि तमाम जगहों पर इन कानूनों की आड़ में स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर लगाम लगाने की मंशा दिखती है। ऐसे में तत्काल तो यह विवाद हल होता नहीं दिखता।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं