Why Women Became A Target In Manipur Violence

रूपरेखा वर्मा

आज का वक्त विरोधाभासों और क्रूर विडंबनाओं का है। धर्म से हर पल पनाह मांगते लोगों की धर्म का रक्षक बनने की हिमाकत, स्त्री को नारायणी मानने का दम भरने के साथ उसकी अस्मिता को हर पल दांव पर लगाने की क्रूरता, समाज के कमजोर वर्गों की चुनावी हिमायत के साथ ही उनसे अकल्पनीय बर्बरता और इन सब के साथ अपने पर गर्व करने की मूर्खता। शायद इनसे हम पूरी तरह मुक्त तो कभी नहीं थे। ऐसा दोहरापन और आत्म-विरोध हमेशा ही हमारे साथ रहा है। लेकिन इसकी इतनी आत्मघाती स्वीकृति कभी नहीं रही, जितनी आज है।
हमारे सामने एक ओर यह खुशनुमा पसमंजर है कि लड़कियां समाजिक जंजीरें काट रही हैं, निषिद्ध दुर्ग फतह कर रही हैं और बेवजह खींची हुई सीमाएं लांघ रही हैं। लेकिन साथ ही हम इस परिदृश्य के भी गवाह हैं कि स्त्रियों का जीवन अभी भी उसी जाल में फंसा हुआ है, जो उनकी अस्मिता और सम्मान के नाम पर उन्हें समाज के हर टकराव में घसीट कर उनकी देह को रणक्षेत्र बना देता है। स्त्री की अस्मिता को उसके शरीर तक सीमित कर देने की बेहूदी सोच युगों-युगों से चली आ रही है। द्वापर युग की मिथकीय द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की जो हरकत कौरवों की राजसभा से शुरू हुई थी, वह आज तक जारी है। मणिपुर में भी हाल के दिनों में यही देखने को मिला।
लड़ाई दो धर्मों की हो या जातियों की, विजय महिला शरीर की नोच-खसोट से ही पूरी मानी जाती है
आलम यह है कि मामला पुरुषों के बीच का हो, दो जातियों या उप-जातियों के बीच का या धार्मिक समूहों या मात्र दो घरों के बीच का। टकराव में प्रतिद्वंद्वी को हराने मात्र से विजय पूरी नहीं होती। विरोधी पक्ष के कितने ही खज़ाने आप लूट लें, कितने ही समर्थक कब्जे में कर लें, प्रतिद्वंद्वी की स्त्रियों की देह न लूटी तो सब बेकार, ऐसा मर्दवादी सिद्धांत आमतौर पर चलता है।
राजशाही भी जहां खत्म हुई, वहां बहुत कुछ बदला, लेकिन उसके अनुरूप मर्दवादी या पितृसत्तात्मक सोच नहीं बदली। न सिर्फ बदली नहीं, कभी-कभी यह सोच ज्यादा कट्टर और भयानक हुई क्योंकि स्त्रियों में संघर्षशीलता बढ़ने के साथ मर्दवादी सोच को घबराहट हुई और उसने अपने शिकंजे को ज्यादा पैना करने की कोशिश की।
आख़िर स्त्री क्यों लपेट ली जाती है किसी भी लड़ाई में? शायद इसलिए कि वह प्रतिद्वंद्वियों का सबसे नाजुक बिंदु है और हर लड़ाई में हम अपने दुश्मन की सबसे नाजुक कड़ी पर हमला करना चाहते हैं। लेकिन स्त्री इतनी नाजुक कड़ी क्यों बना दी जाती है? शायद इसलिए कि हम लगातार स्त्री के लिए ही कहते हैं कि वह हमारे घर (समाज/कौम) की इज्जत है, सम्मान है। हम ऐसा कहते हैं, चाहे अपने घर और कौम में उसे अधिकारों से पूरी तरह वंचित रखें और उसके सम्मान पर हमला भी करते रहें। स्त्री को घर या बिरादरी का सम्मान मानते समय आमतौर पर जो रुख मिलता है, वह हमारे दोहरेपन को दिखाता है। एक तो यह कि हम पुरुष को घर या बिरादरी की इज्जत बिल्कुल भी उस अर्थ में नहीं मानते जिस अर्थ में स्त्री को मानते हैं। स्त्रियों पर पुरुषों के निजत्व के दावे के कारण वे किसी भी द्वंद्व में सबसे नाजुक कड़ी बन जाती हैं और हमलावर का पहला निशाना बनती हैं। अगर पुरुष और स्त्रियां दोनों समान रूप से घर की इज्जत माने जाएं तो शायद स्त्रियों की इस तरह की निशानदेही की एक वजह दूर हो जाए।
लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण तो वह वर्चस्ववादी प्रवृत्ति है, जिसे हम बचपन से ‘पुरुषत्व’ के नाम पर पोषित करते हैं और जो स्त्रियों के बढ़ते कदमों से आज बहुत आतंकित है। यह पुरुषत्व संवेदना और सहयोग की क्षमता को तिल-तिल मारता है और स्त्री के शरीर पर पुरुष की ताकत को सेलिब्रेट करता है, पुरुष की बर्बर संवेदनहीन ताकत पर ताली बजाता है। ऐसी सोच में पोषित मर्द के लिए स्त्री देह को कब्जे में करना और उसके ऊपर मर्दानगी के झंडे गाड़ना ही उसके ‘असली मर्द’ होने का प्रमाण है।
इस पुरुषकेंद्रित युद्ध को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि मर्दवाद को मज़बूत करने में सिर्फ पुरुषों का हाथ नहीं है। पितृसत्ता या मर्दवाद एक सोच है, जो स्त्री और पुरुष को एकदम अलग तरह के इंसानों में विभाजित रखता है। इस विभाजित इंसानियत की सोच के पक्ष में सिर्फ पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी रही हैं। क्योंकि पुरुष और महिला दोनों में ये विचार बचपन से ही कूट-कूट कर भर दिए जाते हैं कि आत्म-सम्मान विहीन, साहस-विहीन और हर समय त्याग करने वाली स्त्री ही असल स्त्री होती है और जोर-जबरदस्ती करने वाला, दूसरों को दबा कर रखने वाला और अपनी इच्छा जबरन पूरी करने वाला पुरुष ही असल पुरुष होता है। दोनों ने एक-दूसरे की अपूर्ण और अनुचित छवियों को ही असली छवियां मानने की आदत डाल ली है। इस कारण स्त्री भी पितृसत्ता के इसी ढांचे के समर्थन में उतरती रहती है।
नतीजे दुखद और शर्मनाक हैं। धर्म आधारित या जाति आधारित टकराहटों में हमने देखा है कि बहुत बार किस तरह एक वर्ग की औरतों ने दूसरे वर्ग की औरतों की अस्मिता नष्ट करने में पुरुषों का पूरा साथ दिया। सामान लूटा, दूसरे समूह की स्त्रियों को बलात्कारियों के हवाले किया। अपने ही देश में हमें बार-बार ये सब देखने का दुर्भाग्य मिला।
तो, पूरा मामला स्त्री बनाम पुरुष का उस तरह से नहीं है, जिस तरह हम अभी तक समझते आए हैं। अस्मिताओं की टकराहट ज्यादा पेचीदा मामला है। विभाजन की राजनीति और इस राजनीति द्वारा अस्मिताओं में गुंथी भावनाओं के दोहन को समझे बिना स्त्री जीवन के चारों ओर बुने जाल को समझना संभव नहीं होगा।
(लेखिका लखनऊ यूनिवर्सिटी की पूर्व वाइस चांसलर हैं)
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं