कृष्ण प्रताप सिंह
सर्वोच्च न्यायालय ने गत वर्ष 17 फरवरी को देश की सेना में महिलाओं के किसी टुकड़ी का नेतृत्व करने पर चले आ रहे प्रतिबंध को अतार्किक व समानता के अधिकार के खिलाफ करार देकर खारिज कर दिया तो उसे ‘सच्ची समानता और प्रगतिशीलता’ के पक्ष में बड़ा फैसला माना गया। थोड़ा पीछे पलटकर देखें तो जानकर खुशी होती है कि अवध की नवाबी सेना में यह समानता व प्रगतिशीलता पौने दो सौ साल पहले ही विद्यमान थी और 1857 में पहला स्वतंत्रता संग्राम छिड़ा तो बहुत काम आई थी।
प्रसंगवश, 1847 में वाजिद अली शाह ने अवध का तख्तोताज संभाला तो सूबे की सेना का हाल बहुत बुरा था। पूर्ववर्ती नवाबों द्वारा की गई संधियों के तहत उनके राजपाट की सुरक्षा का जिम्मा गोरी सेना को हस्तांतरित हो गया था और नवाबी सेना की भूमिका अत्यधिक सीमित हो गई थी। वाजिद अली शाह ने जल्दी ही अंग्रेजों की चालाकी ताड़ ली और अपनी सेना के पुनर्गठन में लग गए। उन्होंने महिलाओं की एक टुकड़ी भी बनाई और उसको पुरुष सैनिकों जैसा ही प्रशिक्षण दिलवाया। पुरुष टुकड़ियों की ही तरह इस टुकड़ी की भी रोजाना सुबह पांच बजे परेड हुआ करती थी और बतौर जनरल वाजिद अली शाह खुद उसका निरीक्षण किया करते थे। तब इस टुकड़ी का नेतृत्व तो महिलाओं के हाथ था ही, खकानी व सुलेमानी प्लाटूनों का नेतृत्व किन्नरों को सौंपा गया था। अबीसीनिया के एक किन्नर कमांडर को कर्नल की उपाधि भी दी गई थी।

यह वह दौर था, जब अंग्रेज एक ओर तो वाजिद अली शाह की कथित विलासिता के बहाने उनके राज पर गिद्धदृष्टि गड़ाए हुए थे, दूसरी ओर उनके प्रशासनिक सुधारों में अड़ंगे लगाते रहते थे। तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने रेजिडेंट कर्नल रिचमंड को पत्र लिखकर निर्देश दिया था कि वाजिद अली शाह अपनी पुलिस व्यवस्था में जो भी सुधार चाहें करें, लेकिन सेना के पुनर्गठन से परहेज रखें। लेकिन ‘विलासी’ वाजिद अली शाह ने गवर्नर जनरल की आंखों की किरकिरी बन जाने के बावजूद यह निर्देश नहीं माना। महिलाओं के साथ संगीत व नृत्य जैसी कलाओं में पारंगत कलाकारों की भी सैनिक कुशलता परखी और सेना में विभिन्न पद देकर उनका यथोचित इस्तेमाल किया। कई रिसालों और प्लाटूनों के नाम भी लीक से हटकर रखे : बांका, तिरछा, घनघोर, फौप, अख्तरी, नादिरी, लुकी।
अंग्रेजों द्वारा 11 फरवरी, 1856 को वाजिद को अपदस्थ व निर्वासित किए जाने के बाद 1857 में स्वतंत्रता का पहला संग्राम शुरू होने तक उनकी महिला टुकड़ी बिखर चुकी थी। लेकिन इस टुकड़ी का उनका अनुभव उसमें बहुत काम आया। बेगम हजरतमहल ने उसे पुनर्गठित करते हुए महलों की बांदियों और हब्शी महिलाओं तक को प्रशिक्षण दिलाकर सैनिक बना दिया। कई मोर्चों पर महिला सैनिकों की टुकड़ियां पुरुष वेश में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में शामिल हुईं और उनमें से अनेक ने वतन की रक्षा करते हुए प्राण भी त्यागे। लखनऊ में सिकंदरबाग के मोर्चे पर ऐतिहासिक भिड़ंत में हब्शी महिलाओं की टुकड़ी बेहद जांबाजी से लड़ी। इतिहासकारों ने लिखा है कि वे जी जान लगाकर लड़ती थीं और उनसे भिड़ रहे अंग्रेज सैनिक उनके वीरगति प्राप्त करने से पहले कतई नहीं जान पाते थे कि वे महिलाएं थीं।
कहा तो यह भी जाता है कि एक हब्शी महिला सैनिक सिकंदरबाग की युद्धभूमि में स्थित पीपल के एक विशाल वृक्ष पर चढ़कर छिप गई और वहीं से अंग्रेजों को मार गिराती रही। इससे अंग्रेज सेना में एकबारगी आतंक फैल गया। भेद खुला तो उसे बेरहमी से मार दिया गया। जानना दिलचस्प है कि बेगम हजरतमहल ने महिला सैनिकों की ही नहीं, महिला जासूसों की टुकड़ी भी बनाई थी, जो पुरुष जासूसों से सर्वथा अलग थी और कई बार दुश्मनों के खेमे से ज्यादा महत्वपूर्ण खुफिया जानकारियां लाती थी। बेगम खुद भी कई मोर्चों पर अंग्रेजों के लिए ‘आफत की परकाला’ बनी हुई थीं। सरफराज बेगम लखनवी ने इस बाबत निर्वासित वाजिद अली शाह के साथ कलकत्ते के मटियाबुर्ज चली गई बेगम अख्तर महल को लिखा था, ‘हजरतमहल खुद हाथी पर बैठकर तिलंगों के आगे-आगे फिरंगियों से मुकाबला करती हैं।’
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं