world hopes for big discovery from Chandrayaan-3

चंद्रभूषण

असाधारण दबावों और चुनौतियों का सामना करते हुए इसरो ने चंद्रयान-3 के विक्रम लैंडर को चंद्रमा की 70 डिग्री दक्षिणी अक्षांश रेखा के पास बिल्कुल सटीक तरीके से उतार दिया है। अंतरिक्ष विज्ञान के प्रायोगिक इतिहास में इस तरह की उपलब्धि पहली बार हासिल की गई है। पृथ्वी के दूसरी तरफ पड़ने वाली चंद्रमा की अदृश्य सतह पर लंबे समय तक अपना रोवर यूटू-2 चलाने का गौरव चीन ने भी हासिल किया है, लेकिन इस काम के लिए उसने चंद्रमा की भूमध्यरेखा का नजदीकी इलाका ही चुना था। लेकिन खनिजों की दृष्टि से समृद्ध समझा जाने वाला चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुवीय इलाका इतना ऊबड़-खाबड़ है, और पृथ्वी से पल-पल का संवाद बनाए रखना वहां इतना कठिन है कि वैज्ञानिक इसे अजेंडा पर ही लाने से बचते रहे हैं।
इसरो के लिए एक और दबाव ऐन मौके पर पेश हो गया था। चार साल पहले चंद्रयान-2 के मंजिल पर पहुंचने से सिर्फ तीन मिनट पहले उसके साथ संवाद टूट गया था। ऊपर से रूस ने बिना किसी सूचना के 11 अगस्त को अपना यान छोड़ा और 15-16 अगस्त को उसे चंद्रमा की कक्षा में स्थापित भी कर दिया। इसके साथ ही रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोसकॉसमॉस से इसरो की तुलना शुरू हो गई कि एक वे हैं जो पांच दिन में पाला छू लेते हैं और एक हम हैं कि यही काम 35 दिन में करते हैं।
ऊपर से तुर्रा यह कि रूसियों ने चंद्रयान से दो दिन पहले 21 अगस्त को ही अपना लूना-25 चंद्रमा उतारने की घोषणा कर रखी थी, वह भी विक्रम लैंडर से जरा और दक्षिण में। यानी भारत को चंद्रमा पर यान उतारना है तो उतार ले, लेकिन पहला उपग्रह छोड़ने, पहली बार इंसान को अंतरिक्ष में भेजने और चंद्रमा पर पहली बार गाड़ी दौड़ाने की तरह सबसे दक्षिण में और सबसे पहले अपना यान चंद्रमा पर उतारने का रेकॉर्ड तो रूस ही बनाएगा! लेकिन जब लूना-25 अपनी कक्षा बदलने के दौरान दुर्घटनाग्रस्त हो गया तो दबाव और बढ़ गया कि जो काम रूस से न हो पाया, वह भारत से कैसे होगा।
एक बहुत बड़ी समस्या इधर 140 करोड़ से ज्यादा भारतीयों की अपेक्षा से भी पैदा होने लगी है, जिसकी शिकायत हमारे क्रिकेटरों को लंबे समय से रही है। सोचने की बात है कि सारे वैज्ञानिक काम यदि इसी तरह राष्ट्रीय भावना से जोड़ कर देखे जाने लगे तो क्या भारत में कोई नया रामानुजन, सीवी रमन या जगदीशचंद्र बोस खड़ा हो पाएगा?
बहरहाल, इसरो का काम कितना पक्का था, इसका अंदाजा लगाने के लिए चंद्रयान-3 की उतराई का लाइव ग्राफ देखना देश-दुनिया के लिए काफी रहा होगा। यह हर बिंदु पर ठीक वैसा ही रहा, जैसा इसके होने की उम्मीद थी। साइंस-टेक्नॉलजी के मामले में रूस की गति भारत से एक सदी आगे समझी जाती है। इसके बावजूद लूना-25 को पार्किंग ऑर्बिट से लैंडिंग ऑर्बिट में लाने वाले थ्रस्टर्स ने ऑटोमेटिक कमांड समझने में चूक कर दी और वह अस्थिर कक्षा में पहुंचकर नष्ट हो गया। लेकिन चंद्रयान-3 के एक-एक थ्रस्टर ने कमांड के मुताबिक काम किया। यकीनन इसमें बहुत बड़ी भूमिका चंद्रयान-2 से हासिल किए गए तजुर्बे की रही।
इस अभियान की अगली चुनौती लैंडिंग के चार-पांच घंटे गुजर जाने पर प्रज्ञान रोवर को चंद्र सतह पर चलाने और चौदह दिनों के एक चंद्र-दिन में लैंडर और रोवर के लिए निर्धारित सारे प्रयोग पूरे करने की है। जाहिर है, ये प्रयोग सिर्फ भारत के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए मायने रखते हैं। इनमें एक का संबंध चंद्रमा के वायुमंडल के बारे में जानकारियां जुटाने का है। जी हां, जहां हवा के नाम पर कुछ भी नहीं है, उस चंद्रमा का वायुमंडल! वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 127 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने वाला चंद्र-सतह का तापमान वहां कुछ इंच या फुट की ऊंचाई तक आवेशित कणों और वाष्पित हो सकने वाले पदार्थों का बहुत हल्का गैसीय घोल तैयार करता होगा। ऐसे पदार्थ भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में भले नगण्य हों लेकिन विक्रम की लैंडिंग साइट पर ये हो सकते हैं।
एक महत्वपूर्ण प्रयोग यह भी होना है कि चंद्रमा की सतह कैसे गरम होती है, सूरज से आने वाला रेडिएशन कितनी गहराई तक प्रवेश करता है और इंसानी रिहाइश के लिए जमीन खोदकर या किसी और तरीके से न्यूनतम कितनी आड़ वहां जरूरी होगी। एक बड़ा प्रयोग भूकंपों के मामले में किया जाना है। चंद्रमा को भूगर्भीय रूप से मृत, ‘जियोलॉजिकली डेड’ बताने का चलन पुराना है लेकिन ऑर्बिटर उपग्रहों को वहां भूकंप जैसे कुछ संकेत भी मिले हैं। भारतीय भूकंपमापी वहां जो प्रेक्षण लेंगे, उनसे चंद्रमा की टेक्टॉनिक हलचलों का पता चलेगा।
क्या पानी मिलेगा?
और सबसे बढ़कर पानी, जिसके बारे में पहली प्रत्यक्ष जानकारी चंद्रयान-1 द्वारा चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के एक क्रेटर में गिराए गए लूनर इंपैक्ट प्रोब से उठे गुबार की जांच के क्रम में दर्ज किए गए हाइड्रॉक्सिल आयनों के रूप में ही दुनिया के हाथ लगी थी। अच्छा हो कि विक्रम और प्रज्ञान चांद पर पानी के मामले में कोई पक्की खोज कर डालें। इसमें कोई शक नहीं कि चंद्रमा पर विक्रम के उतरने के साथ सिर्फ भारत ही नहीं, दुनिया के अंतरिक्ष विज्ञान में एक नया युग शुरू हो रहा है। इसके बाद चंद्रमा के साथ इंसान का रिश्ता उस तरह कभी नहीं टूटेगा, जैसे 1960 और 70 के दशक में हासिल की गई महान उपलब्धियों के बावजूद आधी सदी तक टूटा ही रह गया था।
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं