नयी दिल्ली, 20 जून (भाषा) भारतीय दिवाला एवं ऋण शोधन-अक्षमता बोर्ड (आईबीबीआई) के अध्यक्ष एम एम साहू ने दिवाला संहिता को एक ऐसा बड़ा नीतिगत सुधार बताया है जो अब हितधारकों की ओर से, हितधारकों के लिए और हितधारकों का सुधार बन गया है। उन्होंने कहा कि इस संहिता ने कंपनी दिवालापन के बारे में समाज की सोच बदल दी। बहुत से लोग कर्ज शोधन में असमर्थ थे और कारोबार से निकलने का रास्ता चाहते थे। उन्हें इस तरह के रास्ते की प्रतीक्षा थी और इस कानून से उन्हें उसका रास्ता मिला है। साहू ने पीटीआई-भाषा से विशेष बातचीत में कहा कि इस संहिता के लागू होने के बाद उच्चतम न्यायालय ने इससे संबंधित जितने भी निर्णय दिए हैं, उससे यह संहिता और सशक्त तथा व्यापक हुई है। उन्होंने कहा कि यह बड़े गौरव के साथ कहा जा सकता है कि इस संहिता के विषय में न्यायालय की सबसे ज्यादा व्याख्याएं/ निर्णय इकट्ठा हो चुके हैं, जो इसके क्रियान्वयन में सहायक हो रहे हैं। इस संहिता के तहत अब तक 70 प्रतिशत मामलों का समाधान ऋण-समाधान प्रक्रिया के जरिये और 30 प्रतिशत का समाधान परिसम्पत्ति के परिसमापन के रूप में हुआ है। साहू अक्टूबर, 2016 में बोर्ड के गठन के बाद से ही इसके अध्यक्ष है। उन्होंने कहा कि यह संहिता कारोबार में दिवालापन के बारे में समाज की सोच बदल रही है। दिवाला कंपनी को ऋण समाधान प्रक्रिया के माध्यम से उबारने और जो कंपनी चल ही नहीं सकती उसे परिसमाप्त करने या स्वैच्छिक परिसमापन की व्यवस्था से उन उद्यमियों का फंदे से बाहर आने का मौका मिला है जो ईमानदारी से चल रहे थे पर उनका दिवाला पिट गया था। उन्होंने कहा , ‘ ऐसी कंपनी जो बाजार का दबाव नहीं झेल पा रही है वह इस संहिता का सहारा लेकर अपने कारोबार का पुनर्गठन कर सकती है या ससम्मान बाजार से बाहर जा सकती है। इस तरह ‘विफलता में सफलता’ देश में नए उद्यमियों के लिए एक नया राग बनने जा रहा है।’वह दिन दूर नहीं है जब भारत में कंपनी जगत में ‘ विफलता का भी अभिनंदन’ होगा। दिसंबर, 2016 में दिवाला संहिता लागू होने के बाद अब तक ऋण समाधान प्रक्रिया के 4,376 मामले आ चुके हैं। इनमें से 2,653 का निपटारा हो चुका है। इनमें 348 मामलों में ऋण समाधान योजनाओं को स्वीकृति दी जा चुकी है। 617 का निपटरा अपील या समीक्षा के स्तर पर हुआ है। 411 मामले वापस ले लिए गए हैं तथा 1,277 में परिसमापन के आदेश हुए हैं। उन्होंने अब तक अनुभावों के आधार पर कहा कि ‘(कारोबार से) बाहर निकलने की स्वतंत्रता की भारी अतृप्त प्यास ने इस संहिता को हितधारकों की ओर से , हितधारकों के लिए और हितधारकों का सुधार बना दिया है।’ आईबीबीआई चेयरमैन ने कहा कि इस संहिता में अनुचित तत्वों को ऋणग्रस्त कंपनी पर कब्जा करने से रोकने की जो पाबंदिया लगायी गयी हैं उससे ऋणी-और ऋणदाता के बीच संबंधों का एक स्वस्थ वातावरण बना है।उन्होंने कहा कि इस संहिता से भारत में कारोबार की सुगमता बढ़ाने में मदद मिली है। उन्होंने कहा कि छह संशोधनों और कुछ छोटे कानूनों से इस संहिता की प्रासंगिकता बनी रही और इसके क्रियान्वयन एवं बदलती आवश्यकताओं से निपटने में सहायता मिली। यह कानून ऐसे समय लागू किया गया जब कि अराजकता की स्थिति थी जिसमें सभी ऋणदाताओं के दावों का योग उपलब्ध सम्पत्ति से मेल नहीं खाता था। उन्होंने कहा कि सफलता के साथ कुछ कमियां हैं। दूसरे देश से जुड़ा दिवालापन या समूह के दिवालापन से निपटने की व्यवस्था के कलपुर्जे जोड़ने की जरूरत है। मूल्यांकनकर्ता पेशेवरों का काडर खड़ा करने की दिशा में काम शुरू हो गया है पर संस्थागत व्यवस्था स्थापित होने में कुछ समय लेगा। उन्होंने कहा कि रिण समाधान की पुरानी व्यवस्था में औसतन करीब पांच साल का समय लगता था। इस समय औसत 400 दिन का समय लग रहा है। समय घटा है पर यह 180 दिन या अधिकतम 270 दिन के लक्ष्य से अधिक है।साहू ने यह भी कहा के आर्थिक क्षेत्र के कानून या अधिनियम प्रारंभ में मूलत: ‘अस्थिपंजर होते हैं। उनमें रक्त-मांस का समावेश न्यायिक निर्णयों से ही होता है। इसी संदर्भ में उन्होंने उच्चतम न्यायालय के निर्णयों की भूमिका का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि न्यायालय ने इस संहिता के साथ प्रयोग की स्वंत्रता दी। साथ ही उसने विधि-सिद्धांत के प्रश्नों का समाधान किया, कई अवधारणाओं की व्याख्या की, टेढ़े विवादों का समाधान किया और यह स्पष्ट किया कि क्या मान्य है और क्या अमान्य। इस संहिता के बाद 3,500 दिवालापन समाधान पेशेवरों की एक बड़ी फौज तयार हुई है। तीन दिवाला समाधान पेशवर एजेंसियां बनी है। 80 समाधान पेशेवर इकाइयां काम कर रही है। 4,000 मूल्यांकनकर्ता पंजीकृत हैं। 16 पंजीकृत मूल्यांकक संगठन और एक सूचना इकाई काम कर रही है।