लेखकः मुदार पाथरेयाभारत की अर्थव्यवस्था अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है, लेकिन स्टॉक मार्केट पर इसका जरा भी असर नहीं दिखता। उलटे वह दिन-ब-दिन नए कीर्तिमान बना रहा है। लोग हैरान हैं कि आखिर बाजार आर्थिक मंदी को नजरंदाज कैसे कर सकता है। मेरे हिसाब से मार्केट अपने मिजाज से अर्थव्यवस्था से अलग रास्ता पकड़ता है। वह उम्मीदों के भरोसे आगे बढ़ता है। इसलिए जब भविष्य अच्छा नहीं दिखता, तब इसमें गिरावट आती है।
कंपनियों का कर्ज घटापिछले साल मार्च में लॉकडाउन लगने से एक दिन पहले तक बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का संवेदी सूचकांक सेंसेक्स 26 हजार से कुछ नीचे जाकर बॉटम आउट हुआ यानी वहां से इसकी वापसी शुरू हुई। लॉकडाउन लगने के बाद अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई, लेकिन मार्केट ने अलग ही गुल खिलाया। वह लगातार बढ़ता रहा और एक साल से भी कम वक्त में तकरीबन दोगुना हो गया। यह उन उम्मीदों के भरोसे आगे बढ़ा, जिस पर अब तक अमल ही नहीं हुआ। यही वजह है कि मैंने इसे तकनीकी तौर पर अर्थव्यवस्था से अलग बताया।
शेयर मार्केट के अच्छे प्रदर्शन की एक वजह है कंपनियों का कर्ज घटाना। टाटा स्टील ने सालाना नतीजे जारी करने के फौरन बाद बताया कि उसके ऊपर जितना कर्ज है, उसमें से 30 हजार करोड़ रुपये वह अगले साल तक चुका देगी। स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया यानी सेल ने भी एनुअल रिजल्ट के बाद बताया कि उसने चौथी तिमाही में 16 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का लोन चुकाया है। इस तरह की कई कंपनियां हैं, जिन्होंने पिछले पांच वर्षों में अपना कर्ज काफी कम किया है। इससे उन कंपनियों पर बाजार का भरोसा बढ़ा है।
सेंसेक्स 50 हजार पार करने पर बीएसई की बिल्डिंग में जश्न (फाइल फोटो)
लोन चुकाने वाली कंपनियों की कतार में मेरे कई क्लायंट्स भी शामिल हैं। क्लायंट से मेरा मतलब यह है कि मैं कई कंपनियों की एनुअल रिपोर्ट लिखता हूं। दिल्ली में हेडक्वॉर्टर रखने वाली एक टायर कंपनी की अधिक कर्ज ही पहचान बन गई थी। उसने भी एक तिमाही में हजार करोड़ रुपये का कर्ज अदा किया। रायपुर की एक मझोली स्टील कंपनी ने अपना लंबी अवधि का कर्ज तय वक्त से दो साल पहले ही चुका दिया। कोलकाता से शुरू हुई एक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी के बारे में लग रहा था कि उसके लिए कुल बिजनेस 15,000 करोड़ से अधिक करना मुश्किल होगा। इस कंपनी ने अपने बिजनेस में 3,000 करोड़ रुपये का निवेश किया और एक झटके में अपनी तकदीर बदल दी। ऐसी बातों से बाजार का हौसला बुलंद हो रहा है।
देश की सबसे बड़ी इंटीरियर इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी एक नया प्लांट लगाने वाली है। इसकी फंडिंग वह अपनी कमाई और अन्य जरियों से करेगी। इसलिए कंपनी को ग्रोथ बढ़ाने के लिए शायद कर्ज लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इस मामले में देश की सबसे बड़ी बीड वायर मैन्युफैक्चरर एक कदम आगे है। इसके बहीखाते में इतनी रकम है कि यह अपनी आमदनी से एक नई फैक्ट्री लगाने जा रही है, एक भी रुपये का कर्ज लिए बिना। अब कंपनियां कर्ज से दूरी बनाने लगी हैं। वे जितनी जल्दी हो सके, लोन का भार हल्का करने की जुगत में हैं। इससे उम्मीद है कि मौजूदा वित्त वर्ष से उनका मुनाफा भी बेहतर होगा। यह शेयर बाजार के लिए टॉनिक जैसा है।
शेयर बाजार और इकॉनमी की अलग-अलग चाल की वजह सरकार की लंबी अवधि की नीतियां भी हैं। नैशनल बायोफ्यूल्स पॉलिसी इसकी अच्छी मिसाल है। प्रधानमंत्री जब ‘एथनॉल’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो डिस्टिलरी रखने वाली चीनी कंपनियों की वैल्यू झट से बढ़ जाती है। अभी एथनॉल प्रॉडक्शन बढ़ाने का काम चल रहा है। कुछ कंपनियां तो ऐसी हैं, जो 2022-23 एथनॉल ईयर से पहले कपैसिटी नहीं बढ़ा पाएंगी। लेकिन, मार्केट ने खुद ही मान लिया है कि कंपनियों की उत्पादन क्षमता बढ़ गई है और उनके पास निवेश के लिए काफी पैसा इकट्ठा हो गया है।
कुछ लोगों को लगेगा कि मेरा सारा गुणा-भाग अटकलों पर आधारित है। उन्हें मैं दूसरे तरीके से समझाता हूं। सरकार 2025 तक पेट्रोल में 20 फीसदी एथनॉल मिलाने का लक्ष्य लेकर चल रही है। इसका मतलब कंपनियों पर जितना हो सके, उतना उत्पादन बढ़ाने का दबाव है। मार्केट तलाशने का दबाव अलग से है। लोगों की यह भी सोच है कि जैसे-जैसे शुगर मैन्युफैक्चरर्स कृषि से जुड़ी एनर्जी कंपनियों में तब्दील होंगी, उनका कामकाजी तरीका बेहतर होगा। वे निवेश के लिहाज से अच्छी कंपनी के रूप में सामने आएंगी। इसमें दसेक साल का समय लग सकता है। तो क्या ऐसा शुगर स्टॉक खरीदने से कोई फर्क पड़ेगा, जो सिर्फ दो महीने में दोगुना हो गया हो? मेरे ख्याल से नहीं। लंबी अवधि में इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा और उन्हें अच्छा-खासा रिटर्न मिल सकता है। इसी उम्मीद में लोग पैसे भी लगा रहे हैं।
कई विश्लेषकों को लगता है कि आर्थिक मंदी के दौर में शेयर बाजार की तेजी पहला संकेत है कि बड़ी कंपनियां अपने प्लान बी के तहत चीन का विकल्प खोज रही हैं। इसका मतलब दिग्गज वैश्विक कंपनियां प्रॉडक्ट्स की खातिर भारतीय कंपनियों के पास आएंगी, जिनके लिए पहले वे चीनी कंपनियों के पास जाती थीं। लिहाजा, यह बाजार में ऐसी कंपनियों में पैसे लगाने का मुफीद समय हो सकता है। अगली कुछ तिमाहियों में अर्थव्यवस्था को मापने वाले कई संकेतकों में जोरदार तेजी की उम्मीद है। इससे बाजार और ज्यादा ऊपर जा सकता है।
फायदे में संगठित कंपनियांबड़ी संगठित कंपनियों के लिए जीएसटी का फायदा भी साफ नजर आने लगा है। देश की सबसे प्रतिष्ठित इनरवियर कंपनियों में से एक का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान उसे असंगठित क्षेत्र के प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले डीलर स्टोर में फिनिश्ड प्रॉडक्ट्स जल्दी मिल जाते थे। इससे कारोबारी मुकाबले में उसे जो शुरुआती बढ़त मिली, वह पूरे साल बरकरार रही। इस K शेप वाली रिकवरी से संकेत मिलता है कि संगठित कंपनियां शायद तेजी से आगे बढ़ रही हैं। वहीं, MSME पर नजर रखने वाले जाहिर तौर पर पूछेंगे कि जब छोटे कारोबारियों की हालत इतनी खराब है, तो बाजार में तेजी क्यों है?
मैंने बस इतनी ही दलीलों में समझा दिया कि स्टॉक मार्केट की मुस्कान का राज क्या है। अभी तक तो ‘डॉलर की कमजोरी’, ‘बॉन्ड खरीदारी’, ‘जिरोधा इफेक्ट’, ‘मनी प्रिंटिंग’, ‘इंटरेस्ट रेट’, ‘डिजिटलीकरण’ और ‘आईपीओ’ जैसे हथियारों का इस्तेमाल ही नहीं किया। अगर करूंगा, तो शेयर बाजार की मुस्कान और गहरी हो जाएगी।
(लेखक Trisys के सीईओ हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं